महा नवमी उत्सव का महत्व
महा नवामी या महानवमी नवरात्रि उत्सव का अंतिम दिन होता है। यह दिन मिश्रित भावनाओं के साथ आता है। एक तरफ इस दिन लोगों का जुनून अपने उच्चतम स्तर पर होता है जबकि दूसरी तरफ, भक्त भावनाओं से सराबोर हो जाते हैं क्योंकि यह दिन नवरात्रि समारोह का अंतिम दिन होता है। महानवमी का उत्सव हर राज्य में भिन्न होता है| नवमी के दिन को मां सिद्धदात्री का दिन कहा जाता है|
नवरात्रि के नौवें दिन, देवी की पूजा दुर्गा के रूप में की जाती है और उनको गन्ने के डंठल की प्रस्तुति दी जाती है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे भारत के विभिन्न हिस्सों में इस दिन कन्याओं की पूजा भी की जाती है। कन्या पूजा में, नौ छोटी बालिकाएं जो अभी युवावस्था से दूर हों , को घरों में आमंत्रण दिया जाता है और पूरी, चने की सब्ज़ी, खीर एवं हलवे की दावत दी जाती है। इन लड़कियों को देवी के नौ रूपों के रूप में माना जाता है और उनके पैर धोकर एवं उनके मस्तक पर तिलक लगा कर उनका सम्मान किया जाता है। भक्त उन्हें कपड़ों और फलों जैसे कुछ उपहार भी प्रस्तुत करते हैं। कई स्थानों पर कन्या पूजन अष्टमी के दिन और कई स्थानों पर नवरात्री के अंतिम दिन कन्या पूजन करके उत्सव का समापन किया जाता है|
केरल में, सरस्वती पूजा महानवमी से एक दिन पहले अष्टमी पर मनाई जाती है। महानवमी दिवस को विश्राम दिवस के रूप में माना जाता है। लोग इस दिन नई गतिविधियां शुरू नहीं करते हैं और बच्चे इस दिन अध्ययन भी नहीं करते हैं।
कश्मीर, हरयाणा, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में नवरात्री के उत्सव नवमी के बजाय अष्टमी पर समाप्त हो जाते हैं । नवरात्रि के आठ दिन अष्टमी को दुर्गा के रूप में पार्वती का जन्मदिन भी माना जाता है।
महानवमी के दिन के विधि विधान
सबसे पहले महानवमी की दिन भक्तों को महास्नान के बाद पूजा करनी चाहिए, यह पूजा अष्टमी की संध्या के पश्चात जब नवमी की तिथि लग जाये, उसके बाद ही की जाती है| नवमी के दिवस अपरान्ह काल में दुर्गा बलिदान की पूजा की जाती है और इस दिन हवन करना आवश्यक होता है| नवरात्री के समापन के लिए नवमी पूजन में हवन किया जाता है| पूजा और कथा के पश्चात ही नवरात्री का समापन किया जाना शुभ माना जाता है|
पूजा का महत्व
पौराणिक शास्त्रों के अनुसार महिषासुर नाम के असुर का वध करने के लिए पार्वती मां ने दुर्गा का रूप धारण किया| महिषासुर एक बहुत ही दुर्दांत और भयावह दैत्य था जिससे देवतागण भी भयभीत रहते थे और उससे जीत नहीं पा रहे थे| इसी कारण मां पार्वती यानि कि आदिशक्ति ने दुर्गा का रूप धारण करके महिषासुर के साथ 8 दिनों तक निरंतर युद्ध किया और नौंवे दिवस महिषासुर का मान मर्दन करते हुए वध कर दिया| इसके बाद से ही नवरात्री पूजन का चलन चल पड़ा और नौंवें दिन को महानवमी कहा जाने लगा|
कन्या पूजन कैसे करें?
कन्या पूजन के लिए छोटी बालिकाओं को मां का स्वरुप मानकर उनकी पूजा अर्चना की जाती है| अलग अलग प्रांतों में महानवमी भिन्न भिन्न प्रकार से मनाई जाती है| कन्या पूजन का निम्नलिखित विधान है:-
- सबसे पहले अपने आसपास रहने वाली छोटी छोटी बालिकाओं को अपने घर आने का निमंत्रण दीजिये|
- उन बालिकाओं के साथ एक छोटे बालक को भी बैठा दें|
- जब बालिकाएं घर पर आएं तब उनके पैर खुद अपने हाथों से धोएं|
- सभी बालिकाओं को लाल चुनरी पहनाएं|
- सभी बच्चों को साफ़ सुथरी जगह पर बैठा कर उनके तिलक लगाएं|
- तत्पश्चात उनको खाने में चने की सब्ज़ी, पूरी, खीर, हलवा एवं अन्य व्यंजन परोसें|
- उसके बाद अपनी श्रद्धानुसार उनको कुछ पैसे एवं अन्य उपहार प्रदान करें|
- इसके बाद सभी बालिकाओं के चरण स्पर्श करके उनका आशीर्वाद लें|
कन्या पूजन के नियम एवं विधान
पुराणों और शास्त्रों के अनुसार कन्या पूजन के कुछ नियम हैं और वे इस प्रकार हैं :-
- बिलकुल छोटी बालिका यानि कि 1 साल की बालिका को कन्या पूजन पर नहीं बुलाना चाहिए क्योंकि उसे भोज्य पदार्थों के स्वाद के बारे में पता नहीं होता|
- भक्तों को 2 साल से लेकर 10 साल तक की कन्याओं को ही पूजा पर बुलाना चाहिए|
- 2 वर्ष की कन्या को कुंवारी कन्या कहा जाता है, 3 वर्ष की छोटी बालिका को त्रिमूर्ति, 4 वर्ष की बालिका को कल्याणी, 5 वर्ष की बच्ची को रोहिणी, 6 वर्ष की बालिका को कालिका, 7 वर्ष की बच्ची को चंडिका, 8 वर्ष की बालिका को शाम्भवी, 9 वर्ष की बालिका को दुर्गा एवं 10 वर्ष की कन्या को सुभद्रा कहा जाता है|
- भक्तों को ध्यान रखना चाहिए की 10 वर्षों से ऊपर वाली बालिका की पूजा नहीं करनी चाहिए| कुमारी बालिकाओं की विधि विधान के साथ पूजा करनी चाहिए, कन्या पूजन से शत्रुओं का नाश होता है, धन और आयु में वृद्धि होती है, दरिद्रता का नाश हो जाता है और भक्तों को विद्या, सुख, विजय और समृद्धि का उपहार मिलता है|
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